Wednesday, July 11, 2007

एक अधूरी कविता

बिगाड़ डाला मिल के हमने
इस विशाल सुखद विश्व को
इस श्वेताम्बर की गरिमा को
इस विश्व के भ्रातृत्व को

यह विश्व युगो युगो से रहा है
ईश्वर के निर्माण का साक्षी रूप
पर मानव ने नही समझी इनकी महत्ता
ये पानी ये वायु ये चिलचिलाती धूप

सबको बिगाड़ डाला है हमने
अपने निज स्वार्थों के लिये
पूरी संरचना को बिगाड़ डाला
पता नही किस सुख के लिये
मैं इस कविता को पूरी नहीं कर पा रहा हूँ, कृपया इसको पूरी करने में मेरी सहायता करें।

1 comment:

Divine India said...

मुझे तो कविता पूर्ण लगी,जो कहना चाहते हो वह स्पष्ट है…। हाँ थोड़ी गहराई और आ सकती है किंतु भाषा की सहजता में ये भी छुप गया…सुंदर!!!